बचपन
कैसा था वो बचपन जिसमे हम गिरते , पड़ते और खुद ही रोती आँखें मलते संभल जाते थे ।
हाँ उसी बचपन की बात कर रही हूँ , जब मिट्टी के घर बनाकर उसे कई तरह से सजाते थे , याद है ना ?
हाँ वही , जिसमे किसी की भी डाट से दिल उदास नहीं होता था , जब हर बच्चा माँ के आँचल मैं सिर रखकर सोता था।
जब खिलखिलाहट घर के हर कोने को रोशन करती थी , जब खुद के घर में अपनी आवाज़ कभी नहीं गूंजती थी।
वही बचपन जिसमे नानी दादी के कई किस्से , और किसी भी चीज़ को खाने में उसके बराबर हिस्से होते थे।
हम्म हम्म वही प्यारा बचपन।
जब अपनों को अपनेपन का एहसास नहीं दिलाना पड़ता था ,जब दूरियां दिलो की नहीं ,बस मीलों की होती थी।
आज भी जब याद करती हूँ उन दिनों को तो दिल ख़ुशी से झूम उठता है,
वो वक़्त मानो ज़ैसे कुछ यादों में सिमट सा गया है , लेके जैसे मेरा सारा जहां लिपट सा गया है।
वक़्त लौट नहीं सकता ये सब जानते है ,हम कितना भी कोशिश करें पर यादो से कहाँ निकल पाते है।
आज उनमें से कुछ यादो को शब्दों में लिख रही हूँ , ऐसा लग रहा है मानो जैसे बचपन में , मैं लौट रही हूँ ।
ज्योत्स्ना