मोह का जाल तुझे उलझता चला है ,
तू भूलता सदैव अंत में सब राख में मिला है।
बढ़ता रहा मोह, मन माया रुपी मोह से भरा है,
जबकि नश्वर वस्तुए तो क्या , ये शरीर भी न तेरा है।
कभी ईर्ष्या, कभी द्वेष ,कभी अहंकार से तू भरा है ,
मत भूल की अंत में तू अपने कर्मो से ही तरा है।
कागज़ के चाँद टुकड़ो को , तू प्रेम उल्लास समझता है ,
वंचित है जो उससे , उसे न खास समझता है।
कभी अहंकार, तो कभी मन को स्वार्थ से भरता है,
पर जानले , कि ऊपर वाला भी तुझे तेरे कर्मो से तोलता है।
लेता है बेर, तो कभी मन में, रंजिशे रखता हैं ,
न मानता है कि माफ़ करने वाला हे बड़ा होता है।
जब अंत तेरा आएगा कुछ भी न रह जायेगा ,
तेरा स्वाभाव ही तेरे अपनों के बीच एक छाप छोड़ जायेगा।
न कागज़ के टुकड़े , न अपार संपत्ति तू अपने संग ले जायेगा,
वहा तो तू, खाली हाथ और पैदल ही जयेगा।
ये व्यर्थ का अहंकार और लालच छोड़ दे ,
ये न कभी तेरे काम आएगा।
बस निस्वार्थ प्रेम बाँटता चला जा ,
तू सब के दिलो में ,घर कर जायेगा।
ज्योत्स्ना सुयाल